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श्राद्ध या पितृ-पक्ष

 

श्राद्ध या पितृ-पक्ष

 

हिंदू धर्म में वैदिक परंपरा के अनुसार अनेक रीति-रिवाज़, व्रत-त्यौहार व परंपराएं मौजूद हैं। हिंदूओं में मानव  के गर्भधारण से लेकर मृत्योपरांत तक अनेक प्रकार के संस्कार किये जाते हैं यधपि अंत्येष्टि को अंतिम संस्कार माना जाता है। लेकिन अंत्येष्टि के पश्चात भी कुछ ऐसे कर्म होते हैं जिन्हें मृतक के संबंधी विशेषकर संतान को करना होता है। श्राद्ध कर्म उन्हीं में से एक है।



श्राद्ध क्या है ?

श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।

हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।

पितृ पक्ष का समय

वैसे तो प्रत्येक मास की अमावस्या तिथि को श्राद्ध कर्म किया जा सकता है लेकिन भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक पूरा पखवाड़ा श्राद्ध कर्म करने का विधान है। इसलिये अपने पूर्वज़ों को के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के इस पर्व को श्राद्ध कहते हैं।

 

 

पितृ पक्ष का धार्मिक महत्व

पौराणिक ग्रंथों में वर्णित किया गया है कि देवपूजा से पहले जातक को अपने पूर्वजों की पूजा करनी चाहिये। पितरों के प्रसन्न होने पर देवता भी प्रसन्न होते हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में जीवित रहते हुए घर के बड़े बुजूर्गों का सम्मान और मृत्योपरांत श्राद्ध कर्म किये जाते हैं। इसके पिछे यह मान्यता भी है कि यदि विधिनुसार पितरों का तर्पण न किया जाये तो उन्हें मुक्ति नहीं मिलती और उनकी आत्मा मृत्युलोक में भटकती रहती है। पितृ पक्ष को मनाने का ज्योतिषीय कारण भी है। ज्योतिषशास्त्र में पितृ दोष काफी अहम माना जाता है। जब जातक सफलता के बिल्कुल नज़दीक पंहुचकर भी सफलता से वंचित होता हो, संतान उत्पत्ति में परेशानियां आ रही हों, धन हानि हो रही हों तो ज्योतिषाचार्य पितृदोष से पीड़ित होने की प्रबल संभावनाएं बताते हैं। इसलिये पितृदोष से मुक्ति के लिये भी पितरों की शांति आवश्यक मानी जाती है।

किस दिन करें पूर्वज़ों का श्राद्ध

वैसे तो प्रत्येक मास की अमावस्या को पितरों की शांति के लिये पिंड दान या श्राद्ध कर्म किये जा सकते हैं लेकिन पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का महत्व अधिक माना जाता है। पितृ पक्ष में किस दिन पूर्वज़ों का श्राद्ध करें इसके लिये शास्त्र सम्मत विचार यह है कि जिस पूर्वज़, पितर या परिवार के मृत सदस्य के परलोक गमन की तिथि याद हो तो पितृपक्ष में पड़ने वाली उक्त तिथि को ही उनका श्राद्ध करना चाहिये। यदि देहावसान की तिथि ज्ञात न हो तो आश्विन अमावस्या को श्राद्ध किया जा सकता है इसे सर्वपितृ अमावस्या भी इसलिये कहा जाता है। समय से पहले यानि जिन परिजनों की किसी दुर्घटना अथवा सुसाइड आदि से अकाल मृत्यु हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है। पिता के लिये अष्टमी तो माता के लिये नवमी की तिथि श्राद्ध करने के लिये उपयुक्त मानी जाती है।



पितृ-पक्ष - श्राद्ध पर्व तिथि व मुहूर्त 2020

पितृ पक्ष 2020

1 से 17 सितंबर

पूर्णिमा श्राद्ध – 1 सितंबर 2020

सर्वपितृ अमावस्या – 17 सितंबर 2020

गया जी

जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर - विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं। गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से श्राद्ध महत्व

अपने पूर्वजों के निमित्त दी गई वस्तुएँ सचमुच उन्हें प्राप्त होती हैं या नहीं, इस विषय में अधिकांश लोगों को संदेह है। हमारे पूर्वज अपने कर्मानुसार किस योनि में उत्पन्न हुए हैं, जब हमें इतना ही नहीं मालूम तो फिर उनके लिए दिए गए पदार्थ उन तक कैसे पहुँच सकते हैं? क्या एक ब्राह्मण को भोजन कराने से हमारे पूर्वजों का पेट भर सकता है? न जाने इस तरह के कितने ही सवाल लोगों के मन में उठते होंगे। वैसे इन प्रश्नों का सीधे-सीधे उत्तर देना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक मापदण्डों को इस सृष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता। दुनिया में ऐसी कई बातें हैं, जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पड़ता है।

प्राचीन सनातन धर्म की सभी परम्पराए अपना एक वैज्ञानिक आधार रखती है श्राद्ध भी इससे अलग नहीं है श्राद्ध के जरिये भी प्रकृति को जिन्दा रखने की कोशिस की गयी है सच्चे श्राद्ध” के चार मुख्य अंग है। हवन, पिण्डदान, तर्पण और उत्तम व्यक्ति को भोजन करना ही है। हवन से देवों की तृप्ति होती है। पिण्डदान से पितरों को संतुष्टि होती है और सरोवर व स्नान कर जलाञ्जल्ली देते वक्त अपने अभीष्ठ मृत व्यक्ति का स्मरण करें और फिर बाद में उत्तम व्यक्तियों को भोजन कराए। यही श्राद्ध का सुगम और सरल रूप है। इस समय पितरों का स्मरण कर ध्यान लगते हुये जो कुछ क्रिया करते हैं उनको तृप्ति प्राप्त होती ही है |



पितृपक्ष में प्राय: कौवे, कुत्ते और गाय को भोजन परोसा जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि श्राद्धों में कौवा क्यों जरूरी है?

कौवे को संरक्षण देने के प्रति ना केवल धार्मिक अवधारणा है, बल्कि विज्ञान जगत ने भी इस पर गहन अध्ययन किया है, जिसके अनुसार कौवे का प्रकृति तथा मानव जीवन का गहरा संबंध है। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक के हर्बल गार्डन के अधीक्षक डॉ. सुरेंद्र भारद्वाज ने बताया कि कौवा बरगद और पीपल के फल निगलता है। फलों के ऊपर का गुद्दा उसके पेट में पच जाता है और उसके पाचन तंत्र में गुठली के जमाव की प्रक्रिया तैयार होती है। इसकी आंतों में ऐसा एंजाइम होता है जो गुठली को अंकुरित करने के लिए अनुकूल वातावरण देता है। ऐसे में जब कौआ कहीं बीट करेगा, वहां पर बरगद व पीपल का तैयार बीज गिरता है और उसका जल्द ही जमाव होने लगता है। यही वजह है कि इमारतों पर व धरती पर जहां-तहां स्वत: ही पीपल के पेड़ उग जाते हैं। पीपल व बरगद ऐसे पेड़ हैं, जिनमें से ऑक्सीजन 24 घंटे निकलती रहती है। यदि कौवे को संरक्षण ना मिले तो बरगद व पीपल के पेड़ विलुप्त होने का खतरा बढ़ेगा। उन्होंने बताया कि मादा कौवा भादो के महीने में अंडा देती है। भादो महीने में ही पितृपक्ष आता है। नौ दिन में कौवे का बच्चा अंडे से बाहर निकल आता है। मादा कौवा घरों की छतों से पितरों के निमित्त रखा भोजन उठाकर ले जाती है। यह आहार पौष्टिक होता है, जिसे वह रोजाना अपने बच्चों को खिलाती है। इससे कौवे की प्रजाति भी बढ़ती रहती है। इसलिए इन पौधों का औषधीय महत्व भी है। इनके संरक्षण के लिए कौवे का जीवित रहना जरूरी है। इसलिए कौवे का ग्रास निकाला जाता है।

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Compiled By: Vijay Verma

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